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Thursday, 25 May 2023

चार्ल्स डार्विन के जन्म की द्विशताब्दी पर

 

This article was written in February 2009, to understand Darwin's contribution in common language. On completion of 200 years of his birth. Today, while the ruling dispensation is making this principle redundant, it is presented for reading once again. It was featured in the February 2009 issue of "Pratirodh Ka Swar" magazine.

यह लेख फरवरी 2009 में लिखा गया था, आम भाषा में डार्विन के योगदान को समझने के लिये। उनकी जन्म के 200 वर्ष पूरे होने पर। आज जबकि इस सिद्धांत को शासक लोग बेमानी बना रहे रहे हैं, इसे एक बार पढ़ने के लिए प्रस्तुत है। इसे “प्रतिरोध का स्वर” पत्रिका के फरवरी 2009 के  अंक में छापा गया था।

चार्ल्स डार्विन के जन्म की द्विशताब्दी पर

 

मृगांक

फ्रांसीसी क्रांति के बाद, वैचारिक रूप से पूंजीवादी विचारधारा की मान्यता के बाद, जब यांत्रिक भौतिकवाद एक मान्य विचारधारा बन गई थी, 19वीं सदी का उत्तरार्द्ध बौद्धिक स्तर पर एक वैचारिक उथल-पुथल का समय था। जहां यांत्रिक भौतिकवाद बहुत-सी चीजों को समझा रहा था, वहीं जैविक पदार्थ या जीव-जंतुओं के स्तर पर अभी भी अनेक अंधविश्वास छाये हुए थे। वहीं दूसरी ओर पूंजीवादी शोषण से त्रस्त मुक्ति की विचारधारायें भी छा रही थीं। यह वह समय था जब नवीन विचारधारायें स्थापित हो रही थीं, आ रही थीं और बहस मुबाहसों में बहुत से स्थापित मान्यतायें धाराशायी हो रही थीं। एक टीकाकार पेरी ने लिखा है "यथार्थवाद, प्रत्ययवाद, डार्विनवाद, मार्क्सवाद व उदारवाद प्रकृति व समाज के सभी रुमानी, धार्मिक व अधिभूतवादी समझदारी को चुनौती दे रहे थे और एक वस्तुगत विश्व समझदारी पर केन्द्रित हो रहे थे।" उस समय दो प्रमुख विचारक थे, डार्विन और मार्क्स 12 फरवरी, 2009 को डार्विन के जन्म की द्विशताब्दी है। इस मौके पर आईए देखें कि आखिर डार्विन के विचारों ने क्यों हलचल मचाई तथा वे कैसे विकसित हुए।

डार्विन द्वारा यघपि यह चुनौती जैविक विकास के क्षेत्र में दी गई जहां डार्विन ने जीवों के प्रजातियों की उत्पत्ति व विकास को समझने हेतु सिद्धान्त प्रस्तुत किया, पर यह चुनौती इतनी गंभीर थी कि दुनिया को देखने-समझने की कुल समझदारी पर भी इसका आमूल प्रभाव पड़ा और इसने कई जड़ मान्यताओं को हिला कर रख दिया; या कहा जाये कि उन्हें उखाड़ कर फेंक दिया। यही वजह थी कि डार्विनवाद को इतनी बहसों व विरोधों का सामना करना पड़ा। पर, यह आज भी जिंदा है।

जीवन परिचय

चार्ल्स राबर्ट डार्विन का जन्म 12 फरवरी, 1809 को माउंट हाउस, श्रेव्सबरी, श्रोपशायर, इंग्लैण्ड में हुआ था। डार्विन के पिता एक धनी पारिवारिक चिकित्सक थे। उन्हें बचपन से स्कूल में प्राकतिक इतिहास पढ़ने का मौका मिला। आठ वर्ष की आयु में, मां के निधन के बाद, वे बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। 1825 में पिता के साथ प्रशिक्षु चिकित्सक के रूप में कार्यरत हुए। बाद में वे रेडिनबर्ग विश्वविद्यालय गये जहां सर्जरी उन्हें नीरस लगी। वहां वे प्राक तिक इतिहास के क्लब पिलिनियन सोसाइटी से जुड़े। यहीं उग्र भौतिकवाद से उनका परिचय हुआ। शुद्ध प्राक तिक इतिहास से उब कर वे विश्वविख्यात संग्रहालय के लिए पौधे इकट्ठे करने व उन्हें वर्गीक त करने के काम में जुट गये। मेडिकल की पढ़ाई की उपेक्षा की वजह से उनके पिता ने उन्हें क्राइस्ट कालेज में भेज दिया ताकि वे धीरे-धीरे एंग्लिकन चर्च में शामिल हो सकें। पर वे पढ़ाई की जगह घुड़सवारी व निशानेबाजी में लगे रहे। वहां वे झींगुर इकट्ठा करने वाले ग्रुप में शौकिया रूप से गये और अपने अध्ययन को 'इलस्ट्रेशन ऑफ ब्रिटिश एंटोमोलोजी' में छापा। यहीं प्राक तिक विज्ञान से उनका परिचय हुआ। परीक्षा के डर से पढ़ाई शुरू की और अच्छे अंक पाये। वहां वे प्राक तिक धर्मविज्ञान पढ़े जिसमें तर्क के साथ धर्म की व्याख्या थी । वहीं, विज्ञान व विज्ञान के दर्शन के अनेक विषय पढ़ते हुए उन्हें प्राकतिक इतिहास में गहन रुचि हुई। इसी समय उन्हें एच. एम. एस. बीगल पर राबर्ट फिट्ज़रॉय के साथ प्रकृतिशास्त्र के अध्ययन हेतु यात्रा का मौका मिला। यही वह यात्रा थी जिसने डार्विन को विलक्षण सिद्धांत रचने का कारण व अवसर दिया।

बीगल यात्रा

बीगल जगह-जगह घूमता रहा और डार्विन भूवैज्ञानिक के तौर पर पर्यवेक्षण करते रहे तथा विस्त त नोट्स बनाते रहे। उन नोट्स पर सोच कर सैद्धांतिक निचोड़ भी निकालते रहे। क्योंकि बीगल पर संरक्षण की व्यवस्था नहीं थी, डार्विन लगातार अपने अध्ययन, नमूने आदि कैम्ब्रिज में अपने परिवार को भेजते रहे। हालांकि भूविज्ञान, झींगूर संग्रह के अलावा वे जीव विज्ञान में नौसिखुए थे, फिर भी जलीय प्राणियों को एकत्र कर तथा उनका डाईसेक्शन कर उन्होंने अध्ययन किया व उसके विस्त त नोट्स लिए। उन्होंने फिट्ज़रॉय से लेकर चार्ल्स लियेल की 'प्रिंसीपल्स ऑफ जियोलॉजी' (भूविज्ञान के सिद्धांत) पढ़ी जिससे उनकी सैद्धांतिक समझ भी विकसित हुई।

रास्ते में कबीले, गुलामी आदि भी देखी। पन्टा अल्टा में विलुप्त स्तनपायी के जीवाश्म देखे तथा ऐसे और भी जीव देखे। जगह-जगह घूमकर वे न केवल भूवैज्ञानिक के तौर पर ज्ञानार्जन कर रहे थे बल्कि सामाजिक, राजनैतिक व मानव विज्ञान को भी देख रहे थे। प्रजातियों के आने व विलुप्त होने के लियेल के सिद्धांत उन्हें अपने पर्यवेक्षण के आधार पर गलत लग रहे थे।

डार्विन ने रास्ते में गुलामों को भी देखा और उसकी प्रचलित नस्लीय कमजोरी की धारणा को न मानकर सांस्कृतिक विकास व भिन्नता को प्रतिपादित किया डार्विन व्यापक जैव विविधता को देख कर आश्चर्य में पड़ गये। फिट्जरॉय ने बीगल यात्रा का औपचारिक व तांत लिखा तो डार्विन के नोट्स भी इस्तेमाल किये गये। डार्विन के नोट्स अंततः प्राकृतिक इतिहास पर एक नये पृप्राक तिक प्राकृतिक थक ग्रंथ के रूप में छापे गये। और, भूविज्ञान व इतिहास में डार्विन इस यात्रा के दौरान ही प्रसिद्ध हो गये। इसी बीच लेयल की प्रस्थापना "रहस्यों का रहस्य, विलुप्त प्रजातियों का नवीन प्रजातियों द्वारा बदला जाना केवल एक चमत्कार है" उनके गले नहीं उतर रही थी। उन्होंने लिखा कि मौकिंग बर्ड, कछुये, फॉकलैंड लोमड़ी आदि प्रजातियों का स्थायित्व (समय में) बहुत से शक पैदा करता है। शायद यही प्रजातियों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालेगा।

उत्पत्ति के सिद्धांत की उत्पत्ति

2 अक्तूबर, 1836 को वापस लौटने पर डार्विन एक प्रसिद्ध व्यक्ति बन चुके थे। 1835 में ही वैज्ञानिक हेंसला ने डार्विन के पर्चे चुनिंदा प्राकतिक वैज्ञानिकों को दिये थे। डार्विन श्रेव्सबरी में रिश्तेदारों से मिल कर जल्द ही कैम्ब्रिज में हेंसलों से मिलने चले गये। अब डार्विन को अनेक वैज्ञानिक साधन व सामग्री उपलब्ध हो गई थी। उनके पिता ने भी आर्थिक योगदान दिया। रिचर्ड ओवन, जो एनॉटमिस्ट थे, ने डार्विन द्वारा एकत्र जीवाश्म का अध्ययन किया ये विलुप्त प्रजातियां दक्षिण अमेरिका की जीवित प्रजातियों से नजदीकी संबंध रखती प्रतीत हुईं। इन्हीं बातों से प्रेरित होकर डार्विन ने अवधारणा बनाई कि एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में विकास संभव है। जुलाई 1837 में उन्होंने अवधारणा बनाई की "संतति में बदलाव बदलती दुनिया में समायोजन के कारण होता है"। उन्होंने इवोल्यूशनरी ट्री को भी बनाया। वे मेहनत से अपने अध्ययन में जुट गये जहां वे गंभीर रूप से बीमार भी पड़े।

कुछ समय के लिए अपने ननिहाल गये और वहीं विवाह किया। वहीं से वे विभिन्न वैज्ञानिक ओहदों जैसे जियोलॉजिकल सोसाइटी के सचिव आदि पर रहे, पर बीमारी ने साथ नहीं छोड़ा।

डार्विन अपने सिद्धांत को विकसित करने लगे थे। 1842 में उन्होंने इसकी रूपरेखा तैयार की। लेयल ने इसे ठीक नहीं समझा क्योंकि उनके अनुसार नई प्रजाति एकदम नई स जना थी । वनस्पति वैज्ञानिक हूकर भी अचंभित हो कहने लगे कि "मेरी राय में अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग उत्पत्ति रही और धीरे-धीरे बदलाव भी ।... पर अभी तक कोई भी सिद्धांत मुझे संतुष्ट नहीं कर सका। अतः मैं तुम्हारे सिद्धांत पढ़ कर खुश होऊंगा।"

डार्विन ने रूपरेखा से व हद निबंध बना लिया था। उन्होंने अनाम रूप से इसे "वेस्टीज ऑफ द नेशनल हिस्ट्री ऑफ क्रिएशन" के नाम से छाप दिया। इससे जबरदस्त विवाद आरंभ हो गया। हूकर ने भी कुछ आलोचनात्मक सुझाव दिये पर वे डार्विन द्वारा स ष्टि के सिद्धांत के विरोध को पचा नहीं पाये। बहरहाल, 1859 में डार्विन ने अपनी पुस्तक “ओरिजिन ऑफ स्पीसीज बाइ नैचुरल सेलेक्शन" छापी। हूकर जहां डार्विन के पक्ष में रहे, लेयल व ओवेन प्रखर विरोधी बन गये। अपने सिद्धांत के प्रस्तावना में उन्होंने लिखा "क्योंकि किसी प्रजाति में जीवित बच सकने से अधिक बच्चे पैदा होते हैं, क्सर अस्तित्व का सतत संघर्ष बना रहता है। इसका अर्थ है कि कोई भी, अगर कितने भी छोटे अर्थ में अपने को जीवन के इस जटिल व बदलती परिस्थितियों में ढ़ाल सकता है, तो उसके जिंदा रहने की अधिक संभावना रहती है। अतः प्राक तिक रूप से वही चुना जाता है। आनुवंशिक रूप से कोई भी चुनी प्रजाति इस नये, परिवर्तित रूप को ही वंशानुगत करेगी।" डार्विन ने विवादित शब्द 'विकास' का इस्तेमाल करने से बचते हुए वंशानुगमन का इस्तेमाल किया। उन्होंने लिखा कि जीवन के इस दृष्टांत में विराटता है। जिस प्रकार ग्रह भौतिकशास्त्र में नियत नियमों से चक्कर काट रहे हैं, जीवन के रूप भी एक से दूसरे में बदल रहे हैं।

प्रकाशन से मची हलचल

'वेस्टीज ऑफ क्रिएशन' तो बेस्टसेलर बन गई थी और खूब लोकप्रिय हुई थी, पर इस पुस्तक के प्रकाशन ने वैज्ञानिक जगत को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को हिला दिया। मनुष्य बंदर जैसे जीवों से विकसित हुआ है यह बात लोगों के गले के नीचे नहीं उतरी। न केवल धर्माचार्य बल्कि वैज्ञानिक व विचारक भी इस बात को स्वीकार नहीं कर सके।

रिचर्ड ओवन जैसे वैज्ञानिक खुल कर विरोध में आये। प्रसिद्ध हक्सले परिवार के वैज्ञानिक थॉमस हक्सले डार्विन के प्रबल समर्थक बन गये जिन्होंने उनके पक्ष में अनेक जगह पुरजोर बहसें की। यहां तक कि हक्सले को लोग डार्विन का बुलडॉग कहने लगे।

चर्चों ने भी इसे सिरे से नकार दिया। डार्विन के चर्च के शिक्षकों सेजविक व हेंसलॉ ने इस सिद्धांत को एकदम खारिज कर दिया। हालांकि कुछ उदारवादी पादरियों, चार्ल्स किंग्सले आदि, ने इसे 'भगवान द्वारा विकास की योजना' बताया। बेडन पावेल ने भी कहा कि चमत्कार भगवान के नियमों को तोड़ते हैं, अतः उन्हें मानना जीव उत्पत्ति के संबंध में नास्तिकतावाद है। डार्विन ने भगवान की स्वविकास की महान शक्ति को ही उजागर किया है। पर अधिकांश समाज इसके विरोध में ही खड़ा रहा। और जगह-जगह बहस-मुबाहरों और खतो किताबत होने लगी।

एक प्रसिद्ध बहस 1860 में ब्रिटिश एसोसियेशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस में रही। ऑक्सफोर्ड सैमुअल विल्बरफोर्स के बिशप ने इसका जोरदार विरोध किया। वहां पर गर्म बहस छिड़ गयी। हूकर पक्ष में बोलते रहे व हक्सले भी। आखिर तर्कों से आजिज आकर बिशप ने पूछा “हस्सले महाशय, यह बतायें कि आपके नाना की तरफ बंदर थे या दादा की ?" हक्सले का जगप्रसिद्ध जवाब है "मुझे एक बंदर का वंशज होना ज्यादा बेहतर लगता है, बजाए एक ऐसे सभ्य व्यक्ति के जो अपनी संस्कृति व वाक्पटुता की क्षमता का इस्तेमाल पूर्वाग्रहों व झूठ की सेवा में करता है।" यह बहस हक्सले के पक्ष में तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सम्पन्न हुई। हालांकि लोगों का मिजाज नहीं बदला पर एक नई सोच व हलचल आ गई थी।

डार्विन का योगदान

डार्विन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा कि उन्होंने क्रमिक विकास को स्थापित कर दिया। हालांकि भौतिकवादी दर्शन स्थापित हो चुका था, पर जीवन के संबंध में अभी भी भ्रांतियां बाकी थीं। इस विषय में धर्म और ईश्वर का ही योगदान माना जाता था। या कहा जाये तो यह पहेली अनसुलझी थी। डार्विन ने अपनी खोज से सर्वप्रथम यह स्थापित किया कि जीवन या जैव प्रजातियों का विकास हुआ है, अर्थात जिस रूप में हम आज इन्हें देखते हैं उस रूप में ये पहले नहीं थे। पहले जीवन की अल्पविकसित प्रजातियां थीं जो धीरे-धीरे विकसित होकर आज की प्रजातियों और उसमें भी उसके सर्व विकसित रूप मानव के रूप में बनी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि यदि यह सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान ने ही बनाया है तो क्यों वह पहले विकसित प्रजाति नहीं बना सका ? क्या उसे आता नहीं था? यह सर्वथा उसकी धारणा के ही विपरीत है। क्योंकि इस खोज में डार्विन ने क्रमिक विकास को स्थापित सत्य सिद्ध किया, अतः सष्टि के अनेक सिद्धांत चाहे जेनेसिस हो, चाहे ब्रह्मा द्वारा रचना या अन्य कोई सबको एकदम ध्वस्त कर दिया।

दूसरे, डार्विन ने इस विकास के लिए एक सिद्धांत प्रस्तुत किया। डार्विन के समकालीन रसॅल वॉलेस भी कुछ ऐसे ही निष्कर्षों पर पहुंचे थे पर वे स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित नहीं कर सके। जैसा कि प्रसिद्ध वैज्ञानिक रिचर्ड फिनमेन ने कहा है कि सिर्फ नियमों को खोजना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक ऐसा सिद्धांत खोजना जिससे ये नियम स्वयंसिद्ध व सरल प्रतीत हों। यही काम डार्विन ने किया। उन्होंने स्पष्टता से यह प्रतिपादित किया कि प्राकतिक चयन में सक्षम प्रजाति आगे विकसित होती है और यही जीव विकास का कारण है।

आज विकास के 400 से अधिक सिद्धांत प्रचलित हैं। पर, आज भी उनका वर्गीकरण डार्विनवादी व गैर-डार्विनवादी सिद्धांतों के रूप में होता है। यही सबसे महत्वपूर्ण है कि डार्विन ने यह स्पष्ट कर दिया कि न केवल क्रमिक विकास हुआ बल्कि इसे प्राक तिक विज्ञान के नियमों व सिद्धांतों से समझा जा सकता है। जैविक विकास व प्रजातियों की उत्पत्ति कोई अलौकिक चमत्कारिक घटना नहीं है बल्कि पदार्थों के गुण व प्रक ति के नियमों के अनुरूप होती है। इस तरह डार्विन ने जीव विज्ञान में भी भौतिकवादी अवधारणा को प्रतिस्थापित किया तथा प्रचलित मान्यताओं को धाराशायी कर दिया। इसने भौतिकवाद को स्थापित होने में बहुत मदद की। आज जबकि जीव पूर्व विकास (प्रीबाओटिक इवोल्यूशन) व जीवन की उत्पत्ति (ओरिजिन ऑफ लाइफ) के सिद्धांत भी मौजूद हैं, डार्विन का योगदान इन्हें स्पष्ट व सहज दिखाने में बहुत ही कारगर है।

मार्क्स ने अपनी पुस्तक में डार्विन के योगदान को सराहा जिसके भाव को एंगेल्स ने मार्क्स की कब्र पर अपने प्रसिद्ध बयान में व्यक्त किया "जिस तरह तरह डार्विन ने जीव विकास के नियमों की खोज की उसी प्रकार मार्क्स ने मानव इतिहास के विकास की खोज की।" अपनी पुस्तक 'प्रक ति का द्वंद्व' में उन्होंने लिखा “यहां डार्विन का नाम प्रमुखता से लिया जाना चाहिए जिन्होंने प्रक ति की अधिभूतवादी अवधारणा को जबरदस्त धक्का दिया और यह सिद्ध किया कि आज का जीवित संसार पौधे, पशु एवं मनुष्य भी करोड़ों वर्षों से चल रही विकास की एक प्रक्रिया के उत्पाद हैं।" हालांकि एंगेल्स ने यह भी कहा कि "डार्विन की सैद्धांतिक अवधारणा से मैं विकास के सिद्धांत को स्वीकार करता हूं, पर डार्विन के सिद्ध करने के तरीके ( जीवन के लिए संघर्ष, प्राकतिक चयन ) को मैं नये खोजे गये तथ्य (विकास) की प्राथमिक, अपूर्ण व अस्थाई व्याख्या मानता हूं।"

और, यह सत्य भी है कि डार्विन ने स्थापित किया कि जीवन के विकास को भौतिकवादी प्राक तिक नियमों से समझा जा सकता है। अंततः बीमारी की वजह से 19 अप्रैल, 1882 को डाउन हाउस डोन, केंट, इंग्लैण्ड में डार्विन का निधन हुआ।